पिछले दिनों इस कड़ी में मैंने भाजपा पर चर्चा की थी कि किस प्रकार 2014 जैसी लहर न हो पाने की स्थिति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा 272 के जादूई आंकड़े से काफी पीछे नजर आ रही है. राजनीति अनिश्चितता का खेल है फिर भी इसकी संभाव्यता ज्यादा लग रही है. अब बात करते हैं मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की. कांग्रेस 2014 के चुनाव में अपने अभी तक के चुनावी इतिहास में सबसे कम सीटें 44 पाई थी. 1984 में इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या के बाद हुए चुनाव में रिकार्ड 415 सीटों के बाद से अब तक किसी भी चुनाव में कांग्रेस स्पष्ट बहुमत 272 के आंकड़े को नहीं छू पायी है. यहां तक की 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद उपजी देशव्यापी सहानुभूति लहर भी कांग्रेस को 232 सीटें ही मिल पाईं थीं जो बहुमत से पचास कम थीं. इसी चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व में बनी सरकार में पहली बार नेहरू गांधी परिवार के बाहर का कोई कांग्रेसी नेता नरसिम्हा राव के रूप में प्रधानमंत्री बना. जिसने पांच साल प्रधानमंत्री के रूप में पूरे भी किये.
इससे पूर्व लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री के रूप में करीब दो साल और गुलजारी लाल नंदा कार्यवाहक के रूप में दो-तीन महीने के लिए प्रधानमंत्री रह पाए. 1984 के करीब तीन दशक बाद 2014 में देश में कोई राजनीतिक दल भाजपा के रूप में स्पष्ट बहुमत के आंकड़े के पार जा पाया. इस बीच के चुनावों में वीपी सिंह, चंद्रशेखर, नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी, एचडी देवेगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल और मनमोहन सिंह ये सभी प्रधानमंत्री अन्य दलों की बैसाखियों पर ही सरकार चलाते रहे. सवाल ये है कि
क्या इस बार राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस या यूपीए स्पष्ट बहुमत पाने जा रहा है? नहीं.
क्या राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी के सर्वमान्य विकल्प के रूप में जनता पसंद कर रही है? नहीं.
क्या कांग्रेस 2014 के 44 के मुकाबले ज्यादा सीटें पाने जा रही है? निःसंदेह. चुनाव आयोग के 2014 के आंकड़ों पर नजर डालें तो कांग्रेस को 16 राज्यों की 367 सीटों में से 44 सीटें मिलीं थीं. कहीं भी कांग्रेस दहाई की संख्या पार नहीं कर पाई थी. जबकि 20 राज्यों/केंद्रीय शासित राज्यों की 176 सीटों में कांग्रेस के खाते में शून्य था. (देखें फोटो में कालम एक व दो).
इन राज्यों में कांग्रेस की सीटें अब बढ़नी ही हैं मगर कितनी ये 23 मई को दिख जाएगा. इन राज्यों पर नजर डालें तो मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़, राजस्थान और पंजाब जैसे बड़े राज्यों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सरकार में है. जबकि मोदी के गुजरात में हुए चुनाव में दमदार उपस्थिति दर्ज करा चुकी है. अभी फिलहाल जिस तरीके से चुनाव चला है और यदि मोदी के खिलाफ जनता ने वोट देने का मन बनाया हो तो मजबूत क्षेत्रीय दलों वाले राज्यों के अलावा अन्य जगहों पर भाजपा के विकल्प के रूप में कांग्रेस की ही राष्टीय स्तर पर मान्यता दिख रही है.
कांग्रेस और यूपीए की अगुआई कर रहे राहुल गांधी ने जिस तरह मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों को खासकर नोटबंदी और बेरोजगारी को मुद्दा बनाया है और गरीब परिवारों को 72 हजार रुपये सालाना भत्ता देने का वायदा किया है, मेरा स्पष्ट मानना है कि मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों से दुखी लोग कांग्रेस की मुड़ सकते हैं.

याद रहे कि मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए सरकार को 2009 मिले एक्सटेंशन में उस सरकार की लोकलुभावन आर्थिक नीतियां हीं थीं.
इसके साथ ही ये भी स्पष्ट दिख रहा है कि इस चुनाव के नतीजों में कांग्रेस की सीटें बढ़ तो रही है मगर इतनी नहीं कांग्रेस या यूपीए 23 तारीख के बाद स्पष्ट बहुमत की सरकार बना सके. इसके लिए इसे मजबूत क्षेत्रीय दलों का सहारा लेना होगा. चूंकि क्षेत्रीय दल भी अपने राज्यों में मिलकर या अकेले मोदी के खिलाफ ही वोट मांग रहे हैं. इस लिए चुनाव संघ बाद की परिस्थितियों में उनके लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए को समर्थन करना कदरन आसान होगा. अगली कड़ी में कथित तीसरे मोर्चे यानि क्षेत्रीय दलों पर चर्चा होगी