
लोकसभा चुनाव 2019 के अंतिम चरण का प्रचार खत्म हो गया है। रविवार को मतदान भी होगा। मतदान के बाद शाम से सभी चैनलों पर एग्जिट पोल आने लगेगा। जिसमें तमाम सर्वे के आधार पर अगली सरकार किसकी होगी इस पर चर्चा शुरू होगी जो 23 को नतीजे आने तक जारी रहेगी।
पिछले दो एपीसोड में मैंने आशंका जतायी कि इस बार के चुनाव में जनता का मूड देखकर लग नहीं रहा कि किसी एक दल या गठबंठन यानि के एनडीए अथवा यूपीए को स्पष्ट बहुमत मिलने जा रहा है।
अब चर्चा करते हैं कथित तीसरे मोर्चे यानि क्षेत्रीय दलों की। चुनाव आयोग के आकंड़ों पर नजर डालें 2014 की मोदी लहर में क्षेत्रीय दल की भूमिका कमजोर नहीं रही. अगर भाजपा को 282 सीटें मिलीं तो क्षेत्रीय दलों को विभिन्न राज्यों में 217 सीटें मिलीं. इनमें बीजेपी के सहयोगी दलों की सीटें देखें तो एनडीए का आंकड़ा 336 पहुंचता है जबकि कांग्रेस के सहयोगी दलों की सीटें जोड़ें तो आंकड़ा 60 पर टिकता है। ध्यान देने योग्य बात ये है कि इस बार भाजपा का मुख्य सहयोगी दल टीडीपी इस चुनाव में साथ छोड़ चुका है, जो सीधा नुकसान भाजपा का दिख रहा है।
इन सबसे इतर अलग अलग राज्यों में क्षेत्रीय दलों ने 147 सीटें जीती थीं। इनमें तमिलनाडु में एआईएडीएमके को 39 में से 37 बंगाल की तृणमूल कांग्रेस को 42 में से 34 और उड़ीसा की बीजेडी को 21 में से 20 सीटें मिलीं। ये वो राज्य रहे जहां मोदी का जादू नहीं चला था लिहाजा इस बार अनुमान है भाजपा बदली हुई परिस्थितियों में शायद ही यहां 2014 के मुकाबले ज्यादा सीटें निकाल पाये। क्षेत्रीय दलों की बात हो और यूपी की सपा बसपा का जिक्र न हो तो सभी विश्लेषण बेमानी हैं खासकर तब जब दोनों दल इस बार मिलकर चुनाव लड़ रहे हों। बीजेपी 2014 में स्पष्ट बहुमत पा ही इसलिए सकी थी क्योंकि पिछली बार यूपी में भाजपा ने यहां क्लीन स्वीप किया था। 80 में से अपना दल को मिलाकर 73 सीटें हासिल की थीं। यूपी में इस बार गठबंधन को हल्के में न लेने के पीछे 1991 के लोकसभा और 1993 के विधानसभा चुनाव के नतीजों पर नजर डालनी होगी।
1990 के राम मंदिर आंदोलन के बाद भाजपा को यूपी से 52 सीटें मिलीं थीं मगर राजीव गांधी की हत्या के बाद बदली परिस्थितियों में केंद्र में नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बनाने में सफल रही थी। इसी तरह 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुए ध्रुवीकरण के बावजूद सपा बसपा गठबंधन को 179 सीटें के साथ सरकार बनाने में सफलता मिली थी। माना जाए तो धार्मिक आधार पर मतों के ध्रुवीकरण पर जातीय आधार पर बना गठबंधन भारी पड़ा था जो उस समय प्रचलित नारे, ‘मिले मुलायम कांशीराम हवा में उड़ गये जय श्रीराम’ से भी परिलक्षित होता है। वर्तमान चुनावी परिस्थितियों पर गौर करें साफ दिखता है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में मोदी की पहले वाली लहर नहीं दिखी जबकि सपा बसपा के गठबंधन के पीछे एक मजबूत जातीय समीकरण खड़ा दिखता है जिसके पीछे मुस्लिम मत एकजुट दिख रहे हैं। कहना अतिश्योक्ति न होगी जातीय गठबंधन एक बार फिर धार्मिक ध्रुविकरण पर भारी दिख रहा है। यू॰पी में भाजपा जितनी सीटें हारेगी उतनी ही बहुमत से दूर खड़ी होगी। यहां एक बार फिर ये कहना समीचीन होगा कि देश एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता की ओर अग्रसर है।