
अब जबकि लोकसभा चुनाव के नतीजे आने में महज 11 दिन शेष हैं. अगली सरकार केंद्र में किसकी बनेगी, इस पर महस मुबाहिसों का दौर जारी है. कल मैंने हंग पार्लियामेंट की आशंका जताते हुए वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्री मोदी से अपेक्षा की थी कि क्या वे पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी और स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की तरह स्पष्ट जनादेश न पाने पर इस्तीफा देकर नयी सरकार के लिए जोड़ तोड़ न करने का नैतिक साहस दिखा पाएंगे?
इस पर तमाम साथियों ने मोदी के पक्ष में जनमत बताते हुए कहा था कि इस बार 2014 के मुकाबले और ज्यादा सीटें भाजपा की रहेंगी. बहस को आगे बढ़ाते हुए अपनी बात के समर्थन में मैं कुछ आंकड़े पेश करना चाहता हूं. जो कि मेरे नहीं बल्कि चुनाव आयोग के ही हैं.
इनके मुताबिक 2914 में नरेंद्र मोदी लहर में भाजपा को 543 में से अकेले 282 सीटें मिलीं थीं जबकि एनडीए को 336.
भाजपा+ को सबसे ज्यादा सीटें हिंदी हार्टलैंड में मिलीं थीं. इनमें 11 राज्यों की 213 सीटों में से 198 सीटें हैं. यहां भाजपा ने क्लीन स्वीप किया था. देखें फोटो में कालम 1. अब इसके बाद छे राज्य वो हैं जहां 149 में से 74 लगभग आधी सीटें भाजपा के पास आईं. देखें फोटो में कालम 2. जबकि करीब 13 राज्यों (केंद्र शासित मिलाकर) की 13 सीटों में से 5 सीटें पाने में भाजपा सफल रही. देखें फोटो में कालम 4. इनके विपरीत सात राज्य ऐसे रहे जहां भाजपा मोदी लहर के बावजूद, एक बार फिर से जोर दूंगा कि मोदी लहर के बावजूद 164 में से सिर्फ सात सीट पा सकी. देखें फोटो में कालम 3.
अब मुद्दे पर आते हैं. सवाल क्या इस चुनाव में 2014 की ही तरह मोदी लहर चल रही है? नहीं. क्या इस चुनाव में विपक्षी दल पिछली बार के मुकाबले कहीं ज्यादा सतर्क और कहीं कहीं एकजुट हैं ? हां. क्या 11 राज्यों की 213 सीटों में से 198 सीटें फिर भाजपा को मिलनी की संभावना है? नहीं.
क्या 6 राज्यों की 149 सीटों में से 74 फिर से भाजपा को मिलने की संभावना है? नहीं.
क्या उन 6 राज्यों में जहां भाजपा को 164 में से मात्र सात सीटें मिलीं थीं जहां क्षेत्रीय दल पिछली बार के मुकाबले कहीं अधिक सतर्क हैं और मजबूती से लड़ रहे हैं, वहां भाजपा पहले के मुकाबले इतनी ज्यादा सीटें पा जाएगी कि क्लीन स्वीप वाले या आधी से अधिक सीटें जीतने वाले राज्यों में हो रहे नुकसान की भरपायी हो सके? नहीं.
भाजपा समर्थक भले ही मेरे इस आंकलन को सिरे से झुठला दें मगर मोदी सरकार के पांच साल के प्रदर्शन पर नजर डालें तो नोटबंदी व जीएसटी से परेशान छोटे मझोले लघु उद्यमी कारोबारी, बढ़ी बेरोजगारी से परेशान नौजवान और सिर्फ खेती से आजीविका चलाता छोटा किसान, ये ऐसे बड़े फैक्टर हैं, जो भाजपा के वोट कम कर रहे हैं.
इसके अलावा पिछले चुनाव में किये गये प्रमुख वादों जैसे कालाधन, आतंकवाद, राम मंदिर और धारा 370 के पूरे न होने से भाजपा समर्थक ठीक से वोट मांग नहीं पा रहे. जबकि एससीएसटी एक्ट मुद्दे पर मोदी सरकार के रवैये से नाराजगी के बाद 10 फीसद गरीब सवर्णों के आरक्षण के झुनझुने के मुद्दे पर सवर्ण बड़ी संख्या में भाजपा से विमुख या नोटा की ओर आकर्षित हो रहे हैं.
उपरोक्त के आलोक में मेरा मानना ये है कि भाजपा किसी भी तरह से इस बार 272 के करिश्माई आंकड़े को पाने नहीं जा रही. जिसके परिप्रेक्ष्य में लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजे में हंग पार्लियामेंट ही दिख रही यानी देश एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता की ओर बढ़ रहा है. अगली कड़ी में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस पर चर्चा करुंगा.